संस्मरण >> कच्चे रास्तो का सफर कच्चे रास्तो का सफररामदरश मिश्र
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रामदरश मिश्र जी की अभिनव साहित्यिक कृति जिसमें जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख और गांव-शहर की पगडंडी को संस्मरणात्मक शैली में प्रस्तुत किया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जीवन परिचय
रामदरश मिश्र जी का जन्म 15 अगस्त, 1924 को
गोरखपुर जिले
के डुमरी गांव में हुआ। उन्होंने एम.ए. पी एच.डी. तक शिक्षा प्राप्त की।
संप्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय (हिंदी विभाग) के प्रोफेसर के पद से सेवा
मुक्त। सर्जनात्मक रचनाओं के रूप में उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में
साहित्य रचना की। उनकी प्रमुख सर्जनात्मक रचनाएं निम्न हैं-काव्य
संग्रह-पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चिट्ठियां, पक गई है धूप, कंधे पर सूरज,
दिन एक नदी बन गया, मेरे प्रिय गीत, हंसी ओठ पर आंखे नम हैं
(ग़ज़ल-संग्रह), जुलूस कहां जा रहा है ?, रामदरश मिश्र की प्रतिनिधि
कविताएं, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में भीगते बच्चे, ऐसे में
जब कभी, बाजार को निकले हैं लोग (ग़ज़ल-संग्रह), आम पत्ते, तू ही बता ऐ
जिन्दगी (ग़ज़ल-संग्रह); उपन्यास पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, बीच का
समय, सूखता हुआ तालाब अपने लोग, रात का सफर, आकाश की छत, आदिम राग (बीच का
समय), बिना दरवाजे का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह, बीस बरस, परिवार;
कहानी-संग्रह-खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, वसंत का एक दिन, इकसठ
कहानियां, अपने लिए, मेरी प्रिय कहानियां, चर्चित कहानियां, श्रेष्ठ
आंचलिक कहानियां, आज का दिन भी, फिर कब आएंगे ?, एक कहानी लगातार, विदूषक,
दिन के साथ, 10 प्रतिनिधि कहानियां, मेरी तेरह कहानियां, विरासत; ललित
निबंध संग्रह-कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख,
यात्रा-वर्णन-तना हुआ इंद्रधनुष, भोर का सपना, पड़ोस की खुशबू;
आत्मकथा-सहचर है समय, फुरसत के दिन, संस्मरण-स्मृतियों के छंद, अपने अपने
रास्ते, एक दुनिया अपनी और चुनी हुई रचनाएं-बूंद-बूंद नदी, दर्द की हँसी,
नदी बहती है। साथ ही मिश्र जी ने अभी तक ग्यारह पुस्तकों की समीक्षा भी की
है।
‘कच्चे रास्तों का सफर’ रामदरश मिश्र जी की अभिनव साहित्यिक कृति है। इसे ‘मेरे जीवन के अनुभव’ श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है। पुस्तक में मिश्र जी ने अपने जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख और गांव-शहर की पगडंडी को संस्मरणात्मक शैली में प्रस्तुत किया है।
जब कभी मैं सोचता हूं कि मुझे जीवन-रस कहां से मिला है तो सबसे पहले मेरी दृष्टि चली जाती है अपने परिवेश पर। होश संभालते ही मैंने अपने चारों ओर एक छोटी-सी दुनिया देखी-परिवार की, मित्रों की, गांव की, खेतों की, खलिहानों की, बाग-बगीचों की और यह दुनिया धीरे-धीरे बड़ी होती गयी।
‘कच्चे रास्तों का सफर’ रामदरश मिश्र जी की अभिनव साहित्यिक कृति है। इसे ‘मेरे जीवन के अनुभव’ श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है। पुस्तक में मिश्र जी ने अपने जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख और गांव-शहर की पगडंडी को संस्मरणात्मक शैली में प्रस्तुत किया है।
जब कभी मैं सोचता हूं कि मुझे जीवन-रस कहां से मिला है तो सबसे पहले मेरी दृष्टि चली जाती है अपने परिवेश पर। होश संभालते ही मैंने अपने चारों ओर एक छोटी-सी दुनिया देखी-परिवार की, मित्रों की, गांव की, खेतों की, खलिहानों की, बाग-बगीचों की और यह दुनिया धीरे-धीरे बड़ी होती गयी।
1
बचपन के दिन
कहते हैं मैं जिस रात (15 अगस्त, श्रावण
पूर्णिमा, 1924 की
रात) को पैदा हुआ वह बहुत भयावनी थी और प्रसूतिग्रह में तमाम कीड़े-मकोड़े
भर गये थे। इन कीड़ों को देहात में जमुआ कहते हैं और विश्वास है कि ये
नवजात शिशु की जान लेने के लिए आते हैं। मां को कहां सुध रही होगी, पड़ोस
की एक बुआ ने यह देखा तो घबरा गयीं और मुझे उठाकर दूसरे कमरे में भागीं
यानी मैं पैदा होते ही मौत के मुंह में चला गया था और उसे फांदकर निकल
आया। मेरी जीवन-यात्रा में कीड़-मकोड़े भी खूब मिले लेकिन मुझे उनसे बचाने
वाली शक्तियां भी मिलती गयीं। कीड़-मकोड़े तो सबको मिलते हैं, किसी-किसी
को तो साफ ही कर जाते हैं, उनकी जिजीविषा, उनके जीवन-मूल्य सभी को चट कर
जाते हैं लेकिन मुझे जिजीविषा मिली है, जीवन के प्रति अगाध विश्वास,
निष्ठा और मूल्य मिला है तो इसीलिए कि कीड़े-मकोड़ों के बावजूद जीवनदायक
कोई न कोई शक्ति, कोई न कोई रस मुझे देर-सबेरे मिलता ही रहा है। इसलिए
जीवन के प्रति आस्था को खंडित करने वाले साहित्य में मेरी आस्था नहीं हो
पाती और अपने लेखन में मैं जीवन-आस्था को जिलाये रखने की कोशिश करता हूं।
जब कभी मैं सोचता हूं कि मुझे जीवन रस कहां से मिला है तो सबसे पहले मेरी दृष्टि चली जाती है अपने परिवेश पर। होश संभालते ही मैंने अपने चारों ओर एक छोटी-सी दुनिया देखी-परिवार की, मित्रों की, गांव की, खेतों की, खलिहानों की, बाग-बगीचों की और यह दुनिया धीरे-धीरे बड़ी होती गयी। डुमरी बीहड़ कछार में बसा हुआ एक गांव-जो मेरा गांव है। इसके एक ओर राप्ती बहती है, एक ओर गोर्रा। दोनों ने इस गांव को और इस जैसे सैकड़ों गावों को अपनी कुंडली में लपेट रखा है। इसके चारों ओर दस मील तक कोई पक्की सड़क या रेल नहीं थी, अब भी नहीं है, उत्तर में दस मील पैदल चलकर आपको चौरी चौरा या सरदार नगर या कुसुम्हीं स्टेशन मिलेगा, दक्षिण में दस मील पर गगहा में पक्की सड़क मिलेगी, पूरब में दस मील पर रुद्रपुर में पक्की सड़क मिलेगी। हां, पश्चिम में पक्की सड़क पाने के लिए आपको छः मील ही चलना पड़ेगा। अब उत्तर में कुछ सुविधाएं हो गयी हैं। बचपन में लगता था कि यह अपने-आपमें बड़ा संसार है जो लगातार बाढ़ की मार से घायल हो रहा है। हां, मुझे याद है-हर साल बाढ़ आती थी, हरे-भरे खेत बह जाते थे। बाढ़ के लौट जाने पर बचता था-रेत का विस्तार, असीम सूनापन और लोगों की आंखों में भयावह स्तब्धता, ‘अब क्या होगा, अब जीवन कैसे बीतेगा’ का एक मौन प्रश्न। फिर चलता था कर्ज का दौर; पैसे वालों के यहां खेतों के, गहनों के बंधक चढ़ने का क्रम; उपवास पर उपवास की श्रृंखला और अभावजन्य सारी यातनाओं का दौर।
बाढ़ हटते ही भूमि नहा-धोकर उभर आती थी और नये बीज डालने का उत्साह चारों ओर भर जाता था। शरद अपनी ताजगी लिए आता था, हवा में, धूप में, रातों में, एक अद्भुत जीवन-गंध भर जाती थी। खेतों के जुतने से मिट्टी अपने भीतर की महक लुटाने लगती थी। जल निथरने लगते थे, घाट चालू हो जाते थे, फिर दशहरा, दीवाली, कार्तिक पूर्णिमा के त्योहार तरह-तरह की छवि लिये आते थे, जीवन हंस पड़ता था, अपने अभावों में भी गाने लगता था, अकेलेपन के बाहर आकर समूह के माले में गुथ उठता था। छोटी-छोटी लौ की तरह नये अंकुर चारों ओर जल उठते थे, भविष्य का एक सपना आंखों में पलने लगता था। धीरे-धीरे हरियाली की बाढ़-सी आ जाती थी, फिर फूलों का समुद्र लहराने लगता था। सरसों-तीसी, मटर के पीले, नीले, लाल फूल और फूल ही फूल। ये फूल जीने के लिए न जाने कितना कुछ दे जाते थे, भीतर कितना भर जाता था इनसे ! प्रकृति लेती है, तो देती भी है।
धीरे-धीरे हवा फिर रुख बदलती थी। झर-झर-झर पत्ते झरने लगते थे, फसलों में एक खास किस्म की पकी हुई गहराई उभरने लगती थी जैसे रंगों की उड़ान एक गहरी आभा से झुक जाती थी। एक अजीब रूमानी ख्वाब से मन भर जाता था। दिगंतों तक मन उड़ता था। भूखे-रंगे लोग फाग गाने में मस्त हो जाते थे। रात-रातभर गाते थे, दोपहर को गाते थे। दरवाजे पर गाते थे, चौराहों पर जमा देते थे, खेतों में गाते थे, रास्तों में गाते थे, कबीर गाते थे, रंग खेलकर आते-जाते लोगों से रास्ते भरे रहते थे-फटे-फटे कपड़ों पर रंग। कितना उन्माद होता था फागुन में और कितना उन्माद था उस समय के लोगों में !
इस जमीन में ही मेरे अनुभव बने हैं, मेरी दृष्टि बनी है और बना है वह देसीपन जो मुझे चमकीले से चमकीले विदेशी आकर्षण के प्रति आतुर नहीं होने देता। इस जमीन के अनेक आयाम हैं-परिवार, गांव, स्कूल, खेती-बारी। परिवार सबसे बुनियादी आयाम है।
स्कूल परिवार, गांव प्रकृति, हाट-बाजार, पर्व-त्योहार सभी एक-दूसरे में गुंथे हुए थे। वह दुनिया अलग-अलग नहीं थी, एक थी, संशिलष्ट थी, संपूर्ण थी। तब गांव में पढ़ाई-लिखाई का रिवाज कहां था, बस, शुरू हो रहा था। दर्जा चार पास कर लेना भी कम बात नहीं थी। मिडिल पास करना तो बड़ी बात समझी जाती थी क्योंकि मिडिल पास करके लोग नार्मल कर लेते थे और कहीं मुदर्रिस हो जाते थे। यदि कोई बी.ए. हो जाय तो सारे जवार में उसके नाम का डंका बज उठता था, उसके नाम से पूरा गांव धन्य हो उठता था। लेकिन ऐसा हो पाना संभव कहां हो पाता था। प्राइमरी और मिडिल स्कूल तो दो-एक कोस की दूरी में मिल जाते थे लेकिन हाई स्कूल तो शहर में ही होते थे। और विश्वविद्यालय ? उसकी तो बात ही न पूछिए। पूरे उत्तरप्रदेश में तब चार विश्वविद्यालय थे। जिस जवार में गरीबी ठाठें मारती हो, उस जवार के किस आदमी में इतनी हिम्मत थी कि इतनी दूर जाकर अंगरेजी पढ़े। बस, लोग किसी तरह मिडिल की पढ़ाई करके नौकरी खोजते थे। इसलिए देहात में पढ़ाई का माहौल बन नहीं पा रहा था। एक दूसरी बात भी थी, वह यह कि अध्यापन का तरीका आतंकवादी था। ऐसा विश्वास था कि डंडे से ही ज्ञान का ताला खुलता है। वह धैर्य नहीं था जो बहुत प्यार से बच्चे के भीतर निहित क्षमता को खींचकर बाहर लाता। मैं यह सोचकर कांप जाता हूं कि यदि मां ने मुझे पढ़ाना शुरू न किया होता तो मेरा क्या होता ? मैं यह स्वीकार कर लूं कि मैं प्रत्युत्पन्न मति व्यक्ति कभी नहीं रहा। बहुत शीघ्र किसी बात को पकड़कर उसका जवाब दे देने की क्षमता मुझमें नहीं रही। मैं बहुत हड़बड़ी में या भीड़-भाड़ में, सभा-सोसायटी में, मजमें में अपनी शक्ति का परिचय नहीं दे सकता। इसीलिए मैं इनसे बहुत घबराता हूं। मैं वहां किसी को प्रभावित नहीं कर सकता। मैं अकेले में निश्चिंत बैठकर सोचता हूँ तो मेरे भीतर की शक्ति मुझसे संवाद करती है और तब सोचता हूं कि भीड़ में पूछे गए प्रश्न का यदि यह उत्तर मैंने दिया होता तो कितना अच्छा रहा होता लेकिन अवसर चूकने पर पछताने से क्या फायदा ! और अवसर चूकते रहना मेरी नियति बन गयी है। तो बचपन के शुरू में मेरी प्रतिभा कितनी थी इसका सही-सही विवेचन तो नहीं कर सकता लेकिन इतना कह सकता हूँ कि जो थी वह बहुत तेजी से खुलने को तैयार नहीं थी। कुछ याद है, कुछ मां की जबानी सुना था कि कई लोगों-जैसे भइया, बड़ी बहन और कुछ और लोगों ने घर पर मुझे अक्षर-ज्ञान देने की कोशिश की लेकिन मेरी मंथर बुद्धि उनकी गति से ऊपर आने को तैयार नहीं हुई। वे लोग बार-बार झल्लाये, डांटा-डपटा, मारा-पीटा और अंत में पटरी उठाकर फेंक दी और बारी-बारी सबने ऐलान कर दिया कि पढ़ना-लिखना इस मूर्ख के वश का नहीं है।
एक तो वैसे ही मेरी मंथर बुद्धि रूठी बैठी थी, दूसरे अध्यापन का यह हड़बड़ी भरा तरीका, फिर डांट-डपट, मार-पीट-मेरा मन पढ़ाई-लिखाई से बिदक गया और मैंने, चैन की सांस ली, यानी ली होगी।
मां यह सब देखती रही ! न जाने क्यों उसे और लोगों के निर्णय पर विश्वास नहीं हुआ। न जाने उसकी आंखों, ने मेरे भीतर क्या देख लिया था, पहचान लिया था कि उसने एक दिन घोषणा की, ‘‘तुम्हें मैं पढ़ाऊंगी।’’ मां पढ़ी-लिखी नहीं थी, बस साक्षर थी यानी वर्णमाला का उसे ज्ञान था। कोई आयोजन नहीं, कोई भूमिका नहीं। जाड़े के दिन थे। हम लोग सवेरे कौड़े के पास बैठे थे। मां ने उसी कौड़े की बुझी हुई राख निकाली, उसे मेरे सामने फैला दिया। बोली-‘‘लिखो बेटा-क।’’ मेरी बद्धमूल जड़ता क्या इतनी आसानी से ‘क’ लिख सकती थी, लेकिन मां ने मेरी अंगुली पकड़ ली, उसे ‘क’ पर घुमाने लगी। कोई हड़बड़ी नहीं थी, कोई दबाव नहीं था। पढ़ाई का कोई अलग से वातावरण नहीं बनाया गया था। इसलिए मैं मां के साथ कौड़ा तापने की-सी सहजता से उसके साथ ‘क’ लिखने लगा। मां को लगा जैसे मेरे भीतर बंधी कोई गांठ खुल रही हो, उसके स्पर्श की आंच से जड़ता धीरे-धीरे पिघल रही हो और भीतर सोयी हुई या अवरुद्ध चेतना अपनी ऊष्मा फेंक रही हो। मां बहुत विश्वास से मुस्कराई थी और पता नहीं क्या चमत्कार हुआ कि सात-आठ दिन में पूरी वर्णमाला मैं सीख गया। उसके बाद मेरे अध्ययन की यात्रा सहजभाव से चल पड़ी। फिर मेरा नाम लिखाया गया। नाम लिखाने मेरी पट्टीदारी के एक चाचा गये थे। जब मेरी जन्म-तिथि लिखाई गयी तो मैंने बहुत झगड़ा किया। जन्म-तिथि लिखाई गयी 31 जनवरी, 1925। मैं बार-बार जोर देकर चिल्लाया कि गलत है यह तिथि। मेरी जन्म-तिथि 15 अगस्त, 1924 है लेकिन किसी ने मेरे कहे पर ध्यान नहीं दिया। मुझे बहुत अजीब लगा कि मेरी असली जन्म-तिथि छोड़कर नकली जन्म-तिथि लिखी गयी थी। स्कूल में प्रवेश पाने के प्रथम दिन ही झूठ का एक धक्का जो लगा वह बाद में और व्यापक तथा गहरा होकर लगता ही रहा। जितना ऊंचा विद्यालय, उतना ही बड़ा झूठ; जितनी बड़ी डिग्री, उतना ही बड़ा झूठ, जितना ऊंचा आदमी, उतना ही बड़ा झूठ, लेकिन तब मैं तिलमिलाकर रह गया था। बाद में उसका सही अर्थ समझा, उसका लाभ समझा और जब अवकाश प्राप्त करने का समय आया है तब यह देखकर तकलीफ होती है कि मेरी असली और नकली जन्म-तिथि में केवल छः महीने की ही दूरी क्यों है जबकि मेरे अनेक सहकर्मी मित्र कई-कई साल का फसला लिए बैठे हैं।
मैं पढ़ने में अच्छा था। हमेशा क्लास में मानीटर रहा। लेकिन कई बार मैं भटका भी। जब-जब किसी गलत मास्टर के पाले पड़ गया और उसने प्यार और शान्ति से समझाने के स्थान पर आतंकवादी रुख अख्तियार किया मेरी बुद्धि निष्क्रिय हो गयी और पढ़ने से जी उदासीन हो गया। पंडित रामचंद्र त्रिपाठी को मैं कभी नहीं भूल सकता। हम लोगों के सौभाग्य की बात थी कि प्राइमरी और मिडिल स्कूल हमारे गांव के पास के गांव विशुनपुरा में था। दोनों गांव की दूरी चार-पांच फर्लांग की होगी। पंडित रामचंद्र त्रिपाठी हमारे गांव के पास के गांव गोपलापुर के निवासी थे। वे किसी और स्कूल में पढ़ाते थे। जब उनका तबादला बिशुनपुरा के स्कूल में हो रहा था तब स्कूल में आतंक छा गया कि यह मास्टर तो बहुत निर्दयी है, चैले से मारता है। तब मैं दर्जा एक में था। दुर्भाग्य से वे हम लोगों की क्लास के मास्टर बनकर आये। मन्नन द्विवेदी की कविता याद न कर पाने के संदर्भ में उन्होंने पूरी क्लास को बड़ी बेरहमी से पीटा। एक दूसरा प्रसंग याद आ रहा है। शायद दर्जा दो की बात थी। तब वे दर्जा दो को पढ़ाने लगे थे। उन्होंने कोई हिसाब समझाया। मेरी समझ में नहीं आया। मैं कह चुका हूं न कि हड़बड़ी या आतंक में समझाया हुआ काम मेरी समझ में नहीं आता। वे पूछते थे, ‘‘समझ गये ?’’ हम लोग कहते थे, ‘‘हां।’’ जब वे सवाल लगवाते थे तब हम सभी लोग गलत कर देते थे, इस पर वे पिटाई करते थे। मेरी भी काफी पिटाई हुई। पिटाई का सिलसिला जारी था कि छुट्टी की घंटी बज गयी। किसी तरह जान बची। लेकिन मेरा मन पढ़ाई से विरक्त हो गया। ठान लिया कि पढ़ने नहीं जाऊंगा। विरक्ति का यह दूसरा दौर था। एक दौर शायद जब ‘ब’ में पढ़ता था तब आया था। याद नहीं कि क्यों आया था लेकिन इतना याद है कि आया था और मैं मां के समझाने पर भी कई दिन तक स्कूल नहीं गया था। तब लड़कों की पूरी फौज मुझे पकड़ने के लिए भेजी गयी थी। लड़के मुझे टांगकर स्कूल ले जाने लगे तो मैंने किसी का नया कोट चींथ दिया, किसी की टोपी फाड़ दी, किसी को काट लिया, किसी को बस्ते से मार दिया और सब लड़के मुझे छोड़कर खाली हाथ लौट गये। होता यह था कि यदि कोई लड़का किसी कारण किसी दिन स्कूल नहीं जा सका तो दूसरे दिन जाने से डरता था। मास्टर से पीटे जाने के भय से वह दूसरे दिन स्कूल जाने से घबराता था और यदि उसका अभिभावक साथ लेकर गया तो चला जाता था नहीं तो भय के मारे कई-कई दिन तक वह गैरहाजिर हो जाता था और जितना ही अधिक गैरहाजिर होता था, उतना ही अधिक भय बढ़ता था और धीरे-धीरे स्कूल जाने से जी चुराने लगता था। कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ होगा। गैरहाजिर होने के बाद मैं हमेशा पिताजी को साथ लेकर स्कूल जाया करता था। लगता है उस बार वे नहीं जा सके होंगे और मेरे अनुपस्थिति रहने का सिलसिला लम्बा होकर स्कूल के प्रति विरक्ति में बदल गया।
इस बार पंडित रामचंद्र त्रिपाठी की पिटाई से दूसरे दिन स्कूल जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैं छुट्टी मार गया और जब एक दिन मार गया तो लगातार छुट्टी मारनी थी। तीसरे दिन गांव के रघुबर नाई के यहां बाल कटवाने गया तो वहीं सहपाठी कपिलदेव भी मिल गये और मालूम पड़ा कि वे भी छुट्टी मार रहे हैं। उनका भी मन रह-रहकर स्कूल से उचट जाता था, यद्यपि वे भी पढ़ने में तेज थे बल्कि हम दोनों शुरू से ही एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी थे। हम लोग बाल कटवा ही रहे थे कि संतू (संतप्रसाद) आ गये। उन्होंने आते ही कहा कि मैं स्कूल से आ रहा हूं, मास्टर साहब ने तुम दोनों को बुलाने के लिए भेजा है। तुम लोगों के घर गया तो मालूम हुआ कि तुम लोग यहां हो। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि संतू स्कूल गये होंगे और उन्हें मास्टर साहब ने या पंडित जी ने हमें बुलाने के लिए भेजा होगा। संतू हमारे गांव के एक बहुत हट्टे-कट्टे, लंबे-चौड़े, बदमाशियों में आगे रहने वाले और पढ़ाई-लिखाई में गोबर गणेश छात्र का नाम था। यह भला स्कूल क्यों गया होगा और पंडित जी इसे भला क्यों भेजेंगे ? फिर भी हम अपने घर जाकर स्कूल के लिए तैयार हुए। अपना-अपना बस्ता लिया और चल पड़े संतू के साथ स्कूल को। कुछ दूर जाने पर संतू ने एक रुपया जमीन पर से उठा लिया और कहा कि खोया हुआ एक रुपया मिला। मुझे पहले तो लगा कि हाय, मैं चूक गया मैं आगे होता तो यह रुपया मुझी को मिला होता लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि यह रुपया संतू अपने घर से चुराकर लाये होंगे और खुद ही चुपके से जमीन पर फेंककर उठा लिया होगा। यह सच निकला। कुछ दूर जाने के बाद एक बगीचा पड़ता था। वहां जाकर मैंने पीछे मुड़कर देखा संतू गायब थे-कहां गये संतू, कहां गये संतू ? कुछ देर बाद वे एक पेड़ की आड़ से निकले। अब मैं पूरी तरह समझ गया कि संतू स्कूल से भागे हुए हैं और हम लोगों को इन्होंने अपना साथी बनाया है। अब हालत बड़ी विचित्र थी। घर जा नहीं सकता था, स्कूल जा नहीं सकता था। दिन काटना था। स्कूल छूटने तक। बस, संतू हम लोगों को लेकर रानापर और बिशुनपुरा गांव की गलियों में घूमते रहे। पास रुपया था-कभी अमरूद खरीदते थे, कभी गुड़ खरीदते थे, कभी गट्टा खरीदते थे, कभी बताशा और कुछ हम लोगों को देकर बाकी काचुर-काचुर काचुर-कुचुर खाते थे और थूक देते थे। हम लोग जब स्कूल के किसी छात्र को या जान-पहचान के आदमी को देखते थे तो छिपकर गली-गली भागते थे। इस भाग दौड़ में मेरा बस्ता लम्बा हो गया था। उसे बार-बार समेटता था और वह बार बार वही रूप धारण कर लेता था। बरसात का दिन था उमस और धूप से हम परेशान हो गये थे। छुट्टी के समय की प्रतीक्षा कर रहे थे; वह समय आने का नाम ही नहीं ले रहा था। हम लोग स्कूल के सामने वाले बगीचे में गये। वहां से उचक-उचककर देख रहे थे कि छुट्टी हुई क्या ? और बहुत देर बाद छुट्टी का अनुभव हुआ जब देखा कि बच्चे स्कूल से निकल-निकलकर भाग रहे हैं। फिर मैं और कपिलदेव घर की ओर चल दिये औऱ संतू बस्ता लेने स्कूल की ओर। रास्ते में कुछ लड़कों ने पूछा, ‘‘अरे, तुम लोग कहां से आ रहे हो ?’’ ‘‘स्कूल से।’’ मैंने कहा।‘‘वहां दिखाई तो नहीं पड़े ?’’ और मैं चुपचाप आगे बढ़ गया। झूठ का बचाव मैं देर तक नहीं कर पाता, एक या दो आघात में मेरा झूठ ढह जाता है। यह इसलिए नहीं होता कि आघात करने वाले का निशाना अचूक होता है बल्कि झूठ मेरे भीतर के ‘मैं’ का हिस्सा नहीं बन पाता, यह ‘मैं’ ही उसे तेजी से बाहर ढकेल देता है। बाद में सुना कि संतू स्कूल में गये औऱ ज्योंही बस्ता लेने के लिए कमरे में लपके, हेडमास्टर बाबू साहब की नजर उन पर पड़ी और ‘पकड़ो-पकड़ो’ चिल्लाये। संतू कमरे की खिड़की से कूदकर पीछे की ओर भागे। स्कूल के पीछे दो बड़ी-बड़ी गड़हियां थीं। एक पलता-सा नाला उन्हें मिलता था। उस नाले में जलकुंभी पाट दी गयी थी ताकि आने-जाने के लिए रास्ता बन जाए। संतू उस जलकुंभी में कूदे और फंस गये। किसी तरह कूदते-फांदते निकले और भागे।
उसके दूसरे दिन स्कूल जाने का कोई सवाल ही नहीं था। कई दिन के बाद स्कूल जाने पर क्या हालत होगी, यह मैं जानता था। पंडित रामचंद्र की मार की कल्पना से रोआं थर्रा उठता था। पिताजी मेरे साथ जाने को तैयार नहीं हुए और मैं अकेले स्कूल जाने को राजी नहीं हुआ। बाबा गालियं देने लगे, मोहल्ले, के लोग समझाने लगे कि पढ़ाई के क्या-क्या फायदे होते हैं। उपदेश, लालच, डांट-फटकार किसी का मेरे ऊपर असर नहीं हुआ, पढ़ाई से मन एकदम भाग खड़ा हुआ।
पिताजी झल्लाये-‘‘चल बेवकूफ, नहीं पढ़ेगा तो घास काट, खेत निरा, खाद फेंक, खेत गोड़...। ये सब काम अपनी उम्र की औकात के मुताबिक पढ़ने के साथ ही करता था किन्तु पिताजी ने इन सब कामों को मेरे अखिल जीवन का लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत किया था और पढ़ाई से एकदम बिदका हुआ मेरा मन बड़े उत्साह और हलकेपन से इस लक्ष्य को स्वीकार कर बैठा और मैं हाथ में खुरपी लिए पिताजी के पीछे-पीछे खेत की ओर चल पड़ा। पंडित रामचंद्र तिवारी मेरे गांव के एक दरवाजे पर बैठे हुए थे। उन्हें देखते ही मुझे डर लगता लेकिन मन में एक गाली देकर कहा, ‘‘अब तुम मेरा क्या कर लोगे, अब तो मैं खेत की ओर चला।’’ पिताजी डांटते-फटकारते आगे-आगे चल रहे थे। पंडित जी ने पिताजी को संबोधित किया-‘‘क्या है मिसिर जी ! किस बात पर नाराज हो रहे हैं ?’’
‘‘अरे, यही अभागा पढ़ेगा नहीं, घास छीलेगा। हम लोग कोशिश करके हार गये। स्कूल नहीं जा रहा है। जब हम लोगों की तरह घास-पास की जिन्दगी बितायेगा, तब अकल ठिकाने आयेगी।’’
‘‘अरे सुनिये-सुनिये मिसिर जी, किसने कहा कि यह घास छीलेगा ? अरे, यह तो बहुत होनहार लड़का है। यह तो बहुत बड़ा आदमी बनेगा। यहां आ बचवा।’’
मैं डरता-डरता उनके पास गया। उन्होंने कहा, जाओ बेटे, यह खुरपी-सुरपी घर पर रख दो, तुम्हारे हाथ में खुरपी नहीं कलम अच्छी लगेगी।’’ और उन्होंने मेरे कान में मंत्र फूंकने की तरह कुछ कहा और पिताजी से कहा, ‘‘जाइए मिसिर, अब इसे मैंने मंत्र दे दिया है, अब यह कल से स्कूल आयेगा और पढ़ेगा।’’
पिताजी के साथ मैं घर लौट गया। मन हलका हो गया था। पंडित जी का जो भय मेरे मन पर पत्थर की तरह जमा हुआ था वह उन्हीं के स्नेह की आंच से पिघलकर बह गया। अब कल से स्कूल जाने में कोई झिझक नहीं अनुभव हो रही थी। मैं हिसाब की किताब लेकर बैठा। हल किये गये प्रश्नों के उदाहरण दिये गये थे, उन्हें देखा। हिसाब भी मेरा ठीक था ही बल्कि काफी अच्छा था। एकांत में वह हिसाब समझ में आ गया जो पंडित जी की पिटाई के कारण मेरे भीतर घबराया घूम रहा था।
याद है कि स्कूल बच्चों के शोर से बजबजाया करता था। ‘हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए’ के सामूहिक प्रार्थना गीत से शुरू होने वाला दिन गिनती और पहाड़ों के समवेत शोर से गूंजता रहता और उसी के बीच-बीच सप्प-सप्प या धम्म-धम्म पीटे जाने की आवाजें और लड़कों के चीखने-चिल्लाने की तेज आकस्मिक ध्वनियां उठती रहतीं। रोने-चीखने की एक खंडित लय स्कूल में तनी रहती। कोई-कोई मास्टर जी तो लात, जूता, लाठी सबका प्रयोग करते थे। कमजोर बच्चों के लिए स्कूल जाना एक खौफ था। वे सुबह निकलते तो देवी-देवता मनाते चलते थे। रानापार गांव में मदनेश जी के घर के आगे एक बरम बाबा की पीढ़ी थी। वहां पहुंचकर हमारे गांव के कई बच्चे हाथ जोड़कर खड़े हो जाते-‘‘हे बरम बाबा, आज मैं मार न खाऊं दुहाई बरम बाबा की।’’ लेकिन मार तो खानी ही थी। कई दुष्ट लड़के शाम को घर लौटते समय बरम बाबा का पीढ़ी की पटरी से पिटाई शुरू कर देते-‘‘लो बरम बाबा सरऊ, मैंने कहा था कि पिटाई न हो आज सबसे अधिक पिटाई हुई। लो, तुम भी पिटाई का मजा चख लो।’’
एक दिन एक लड़का स्कूल में इतनी बुरी तरह पिटा कि शाम को बरम बाबा की पीढ़ी पर पेशाब करने लगा। जिस दिन पिटाई न हो उस दिन को ये लड़के जीवन का कोई शुभ दिन मानते थे। मैं अपने गांव या दूसरे गांव के कितने ही छात्रों को जानता हूं, पिटाई के कारण विद्या से जिनका वास्ता टूट गया और वे या तो अपने पुश्तैनी काम में लग गये या घर छोड़कर भाग गये या जरायम पेशे में पड़ गये। मार के साथ-साथ मास्टरों के ताने भी कम मारक नहीं थे। किसी को पीटते समय मास्टर कहता था, ‘‘सरऊ, बाप तो हल जोतता है, ये पढ़ने चले हैं।’’ ‘‘ससुर तेली-तमोली पढ़ने चले हैं, पता नहीं कोल्हू कौन चलायेगा !’’ ‘‘अरे जाओ-जाओ, तुम भी बाप की तरह भीख मांगो, पढ़ाई लिखाई तुम्हारे वश की नहीं....’’ आदि-आदि....।
कभी-कभी सोचता हूं कि क्या विद्यालयी तौर-तरीके और पुलिस के तौर-तरीके में कोई बहुत अंतर था ? एक घटना याद आ रही है। संतू का चाकू खो गया। खो गया या उसने खो देने का नाटक किया। तब गंगा पंडित हमारे कक्षा-शिक्षक थे। संतू ने उनसे सवाल दागा। पंडितजी ने कहा, जिसने लिया हो दे दे। किसी ने नहीं दिया। बस, क्या था, उन्होंने कक्षा की सामूहिक पिटाई शुरू कर दी। काफी देर तक बच्चे तक बारी बारी से पिटते रहे और चाकू नहीं मिला। उस बचपन में भी मेरा मन इस अन्याय के विरुद्ध तिलमिला कर रह गया था कि चोरी का पता लगाने का यह कौन-सा तरीका है ? क्या यह पुलिस द्वारा की जाने वाली गांव के गांव की सामूहिक पिटाई से भिन्न है ? घर लौटते समय मैंने रास्ते में लड़कों को इकट्ठा किया और कहा कि हमें इस प्रकार के अत्याचार का विरोध करना चाहिए। मैं अपने पिताजी से कहूँगा, वे लाठी लेकर आयेंगे। तुम लोग भी अपने-अपने घर कहो, वे लोग भी लाठी लेकर आवें और मास्टर को इस अत्याचार के लिए दंडित करें। या हम लोग शाम को अरहर के खेत में छिप जायें और जब मास्टर घर लौटें तो घेरकर उनकी पिटाई कर दी जाय। सब लोग सहमत हो गये लेकिन दूसरे दिन एक लड़के ने जाकर उनसे कह दिया। और फिर जब मुझसे जवाब-तलब हुआ तो मेरी हालत देखने लायक थी।
एक दूसरा दृश्य याद आ रहा है। हमारे स्कूल के एक कमरे के द्वार पर मधुमक्खियों ने छत्ता लगा रखा था। पता नहीं, किस विद्यार्थी ने उसे छेड़ दिया या उससे छत्ता छिड़ गया, मधुमक्खियां तिलमिला उठीं। संयोग से उस समय मैं ही दरवाजे से निकल रहा था। भ्रमवश मधुमक्खियों ने मुझी को आक्रमणकारी समझ लिया और मुझी पर टूट पड़ीं। किसी तरह छिपकर जान बचायी। मधुमक्खियों से तो बच गया, अब बारी थी पंडित जी की। उन्होंने पूछा-‘‘मधुमक्खियों को क्यों छेड़ा ?’’ मैंने कहा-‘‘मैंने नहीं छेड़ा, कोई और छेड़कर भाग गया था।’’ मेरे लाख सफाई देने पर भी पंडित जी के दिमाग की मैल नहीं गयी और मधुमक्खियों से पीड़ित मेरे शरीर को बेंत से पीड़ित कर दिया। मैं तिलमिलाकर रह गया। इच्छा हुई बदतमीज मास्टर के मुंह पर ईंट मार कर इसकी नाक तोड़ दूं औऱ भाग चलूं। शूर्पनखा की तरह कटी नाक लिए घूमें। लेकिन क्या मैं यह कर सकता था ? एक छोटे दरजे के विद्यार्थी की कितनी छोटी औकात होती है कि उसकी सही बात को भी कोई सही नहीं मानता और वह अपने को गलत कहने वाले के खिलाफ कुछ कर भी नहीं सकता, सिवा मार खाकर अहकने के। मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था। जब मुझे-बेवक्त मास्टरों की सनक का दंड भोगना पड़ता था तो फिर उनका क्या पूछना जो पढ़ने में मंदबुद्धि थे और छोटे पेशे वाले घरों से आते थे।
स्कूल की पढ़ाई, गृहकार्य खेलकूद की बात करते-करते साहित्य की बात चल पड़ी तो जरूर साहित्य को कहीं इनके बीच ही होना चाहिए। और जब साहित्य इनके बीच है तो यह बात भी समझ में आती है कि क्यों मेरे साहित्य में तमाम रूप-रंगों कथ्यों और शब्दिक भंगिमाओं की कल्पना की जरूरत कम पड़ी। मेरे लिए तो मुख्य रचनात्मक समस्या यह रही कि अपने आसपास के जगत् की अनुभूत सच्चाइयों, गहरी जान-पहचान में ऊभरे अनंत पात्रों और उनकी जीती-जागती भाषा को कैसे सहेजूं, उनका कैसे रचनात्मक इस्तेमाल करूं ? मेरे लिए साहित्य एक सचेत अवस्था में पूरी तैयारी के साथ किया गया सफर नहीं था, बल्कि बचपन की अबोध अवस्था में ही उपजा हुआ एक अज्ञात बेचैनी था जिसे आसपास का जगत् उत्तेजित करता लगता था। मुझे मां और बाप से भावुकता मिली थी। गाता, बजाता था, सैलानी मुद्रा में खेतों में घूमता था। मुझे बचपन से ही प्रकृति अच्छी लगती थी, उसके विविध रंगों का बोध मेरी चेतना पर अपनी छाप छोड़ता था। भीतर कुछ था कि मैं बारह-तेरह वर्ष की अवस्था में गीत लिखने के लिए बेचैन हो उठता था। जब भी कोई गीत सुनता, मन कहता, क्या तुम ऐसा गीत नहीं लिख सकते ?’ और मैंने कई बार कोशिश की। एकाध, पंक्ति उभरी, फिर नहीं उभरी। कुछ लोगों ने नुसखा सुझाया कि बगीचे में एकांत में बैठकर सोचो, अपने-आप कविता आ जायेगी। वह भी किया। नहीं आयी फिर प्रयास छोड़ दिया, लेकिन मन के भीतर तड़प की यात्रा चलती रही। लोक-गीतों की पंक्तियां मेरे भीतर बजती रहीं और बार-बार चुनौती भी देती रहीं कि काश, मैं भी ऐसा लिख पाता ! लोक-परिवेश के विविध रूप-रंग मेरे भीतर उतरते रहे और मैं उनके भीतर उतरता रहा।
जब कभी मैं सोचता हूं कि मुझे जीवन रस कहां से मिला है तो सबसे पहले मेरी दृष्टि चली जाती है अपने परिवेश पर। होश संभालते ही मैंने अपने चारों ओर एक छोटी-सी दुनिया देखी-परिवार की, मित्रों की, गांव की, खेतों की, खलिहानों की, बाग-बगीचों की और यह दुनिया धीरे-धीरे बड़ी होती गयी। डुमरी बीहड़ कछार में बसा हुआ एक गांव-जो मेरा गांव है। इसके एक ओर राप्ती बहती है, एक ओर गोर्रा। दोनों ने इस गांव को और इस जैसे सैकड़ों गावों को अपनी कुंडली में लपेट रखा है। इसके चारों ओर दस मील तक कोई पक्की सड़क या रेल नहीं थी, अब भी नहीं है, उत्तर में दस मील पैदल चलकर आपको चौरी चौरा या सरदार नगर या कुसुम्हीं स्टेशन मिलेगा, दक्षिण में दस मील पर गगहा में पक्की सड़क मिलेगी, पूरब में दस मील पर रुद्रपुर में पक्की सड़क मिलेगी। हां, पश्चिम में पक्की सड़क पाने के लिए आपको छः मील ही चलना पड़ेगा। अब उत्तर में कुछ सुविधाएं हो गयी हैं। बचपन में लगता था कि यह अपने-आपमें बड़ा संसार है जो लगातार बाढ़ की मार से घायल हो रहा है। हां, मुझे याद है-हर साल बाढ़ आती थी, हरे-भरे खेत बह जाते थे। बाढ़ के लौट जाने पर बचता था-रेत का विस्तार, असीम सूनापन और लोगों की आंखों में भयावह स्तब्धता, ‘अब क्या होगा, अब जीवन कैसे बीतेगा’ का एक मौन प्रश्न। फिर चलता था कर्ज का दौर; पैसे वालों के यहां खेतों के, गहनों के बंधक चढ़ने का क्रम; उपवास पर उपवास की श्रृंखला और अभावजन्य सारी यातनाओं का दौर।
बाढ़ हटते ही भूमि नहा-धोकर उभर आती थी और नये बीज डालने का उत्साह चारों ओर भर जाता था। शरद अपनी ताजगी लिए आता था, हवा में, धूप में, रातों में, एक अद्भुत जीवन-गंध भर जाती थी। खेतों के जुतने से मिट्टी अपने भीतर की महक लुटाने लगती थी। जल निथरने लगते थे, घाट चालू हो जाते थे, फिर दशहरा, दीवाली, कार्तिक पूर्णिमा के त्योहार तरह-तरह की छवि लिये आते थे, जीवन हंस पड़ता था, अपने अभावों में भी गाने लगता था, अकेलेपन के बाहर आकर समूह के माले में गुथ उठता था। छोटी-छोटी लौ की तरह नये अंकुर चारों ओर जल उठते थे, भविष्य का एक सपना आंखों में पलने लगता था। धीरे-धीरे हरियाली की बाढ़-सी आ जाती थी, फिर फूलों का समुद्र लहराने लगता था। सरसों-तीसी, मटर के पीले, नीले, लाल फूल और फूल ही फूल। ये फूल जीने के लिए न जाने कितना कुछ दे जाते थे, भीतर कितना भर जाता था इनसे ! प्रकृति लेती है, तो देती भी है।
धीरे-धीरे हवा फिर रुख बदलती थी। झर-झर-झर पत्ते झरने लगते थे, फसलों में एक खास किस्म की पकी हुई गहराई उभरने लगती थी जैसे रंगों की उड़ान एक गहरी आभा से झुक जाती थी। एक अजीब रूमानी ख्वाब से मन भर जाता था। दिगंतों तक मन उड़ता था। भूखे-रंगे लोग फाग गाने में मस्त हो जाते थे। रात-रातभर गाते थे, दोपहर को गाते थे। दरवाजे पर गाते थे, चौराहों पर जमा देते थे, खेतों में गाते थे, रास्तों में गाते थे, कबीर गाते थे, रंग खेलकर आते-जाते लोगों से रास्ते भरे रहते थे-फटे-फटे कपड़ों पर रंग। कितना उन्माद होता था फागुन में और कितना उन्माद था उस समय के लोगों में !
इस जमीन में ही मेरे अनुभव बने हैं, मेरी दृष्टि बनी है और बना है वह देसीपन जो मुझे चमकीले से चमकीले विदेशी आकर्षण के प्रति आतुर नहीं होने देता। इस जमीन के अनेक आयाम हैं-परिवार, गांव, स्कूल, खेती-बारी। परिवार सबसे बुनियादी आयाम है।
स्कूल परिवार, गांव प्रकृति, हाट-बाजार, पर्व-त्योहार सभी एक-दूसरे में गुंथे हुए थे। वह दुनिया अलग-अलग नहीं थी, एक थी, संशिलष्ट थी, संपूर्ण थी। तब गांव में पढ़ाई-लिखाई का रिवाज कहां था, बस, शुरू हो रहा था। दर्जा चार पास कर लेना भी कम बात नहीं थी। मिडिल पास करना तो बड़ी बात समझी जाती थी क्योंकि मिडिल पास करके लोग नार्मल कर लेते थे और कहीं मुदर्रिस हो जाते थे। यदि कोई बी.ए. हो जाय तो सारे जवार में उसके नाम का डंका बज उठता था, उसके नाम से पूरा गांव धन्य हो उठता था। लेकिन ऐसा हो पाना संभव कहां हो पाता था। प्राइमरी और मिडिल स्कूल तो दो-एक कोस की दूरी में मिल जाते थे लेकिन हाई स्कूल तो शहर में ही होते थे। और विश्वविद्यालय ? उसकी तो बात ही न पूछिए। पूरे उत्तरप्रदेश में तब चार विश्वविद्यालय थे। जिस जवार में गरीबी ठाठें मारती हो, उस जवार के किस आदमी में इतनी हिम्मत थी कि इतनी दूर जाकर अंगरेजी पढ़े। बस, लोग किसी तरह मिडिल की पढ़ाई करके नौकरी खोजते थे। इसलिए देहात में पढ़ाई का माहौल बन नहीं पा रहा था। एक दूसरी बात भी थी, वह यह कि अध्यापन का तरीका आतंकवादी था। ऐसा विश्वास था कि डंडे से ही ज्ञान का ताला खुलता है। वह धैर्य नहीं था जो बहुत प्यार से बच्चे के भीतर निहित क्षमता को खींचकर बाहर लाता। मैं यह सोचकर कांप जाता हूं कि यदि मां ने मुझे पढ़ाना शुरू न किया होता तो मेरा क्या होता ? मैं यह स्वीकार कर लूं कि मैं प्रत्युत्पन्न मति व्यक्ति कभी नहीं रहा। बहुत शीघ्र किसी बात को पकड़कर उसका जवाब दे देने की क्षमता मुझमें नहीं रही। मैं बहुत हड़बड़ी में या भीड़-भाड़ में, सभा-सोसायटी में, मजमें में अपनी शक्ति का परिचय नहीं दे सकता। इसीलिए मैं इनसे बहुत घबराता हूं। मैं वहां किसी को प्रभावित नहीं कर सकता। मैं अकेले में निश्चिंत बैठकर सोचता हूँ तो मेरे भीतर की शक्ति मुझसे संवाद करती है और तब सोचता हूं कि भीड़ में पूछे गए प्रश्न का यदि यह उत्तर मैंने दिया होता तो कितना अच्छा रहा होता लेकिन अवसर चूकने पर पछताने से क्या फायदा ! और अवसर चूकते रहना मेरी नियति बन गयी है। तो बचपन के शुरू में मेरी प्रतिभा कितनी थी इसका सही-सही विवेचन तो नहीं कर सकता लेकिन इतना कह सकता हूँ कि जो थी वह बहुत तेजी से खुलने को तैयार नहीं थी। कुछ याद है, कुछ मां की जबानी सुना था कि कई लोगों-जैसे भइया, बड़ी बहन और कुछ और लोगों ने घर पर मुझे अक्षर-ज्ञान देने की कोशिश की लेकिन मेरी मंथर बुद्धि उनकी गति से ऊपर आने को तैयार नहीं हुई। वे लोग बार-बार झल्लाये, डांटा-डपटा, मारा-पीटा और अंत में पटरी उठाकर फेंक दी और बारी-बारी सबने ऐलान कर दिया कि पढ़ना-लिखना इस मूर्ख के वश का नहीं है।
एक तो वैसे ही मेरी मंथर बुद्धि रूठी बैठी थी, दूसरे अध्यापन का यह हड़बड़ी भरा तरीका, फिर डांट-डपट, मार-पीट-मेरा मन पढ़ाई-लिखाई से बिदक गया और मैंने, चैन की सांस ली, यानी ली होगी।
मां यह सब देखती रही ! न जाने क्यों उसे और लोगों के निर्णय पर विश्वास नहीं हुआ। न जाने उसकी आंखों, ने मेरे भीतर क्या देख लिया था, पहचान लिया था कि उसने एक दिन घोषणा की, ‘‘तुम्हें मैं पढ़ाऊंगी।’’ मां पढ़ी-लिखी नहीं थी, बस साक्षर थी यानी वर्णमाला का उसे ज्ञान था। कोई आयोजन नहीं, कोई भूमिका नहीं। जाड़े के दिन थे। हम लोग सवेरे कौड़े के पास बैठे थे। मां ने उसी कौड़े की बुझी हुई राख निकाली, उसे मेरे सामने फैला दिया। बोली-‘‘लिखो बेटा-क।’’ मेरी बद्धमूल जड़ता क्या इतनी आसानी से ‘क’ लिख सकती थी, लेकिन मां ने मेरी अंगुली पकड़ ली, उसे ‘क’ पर घुमाने लगी। कोई हड़बड़ी नहीं थी, कोई दबाव नहीं था। पढ़ाई का कोई अलग से वातावरण नहीं बनाया गया था। इसलिए मैं मां के साथ कौड़ा तापने की-सी सहजता से उसके साथ ‘क’ लिखने लगा। मां को लगा जैसे मेरे भीतर बंधी कोई गांठ खुल रही हो, उसके स्पर्श की आंच से जड़ता धीरे-धीरे पिघल रही हो और भीतर सोयी हुई या अवरुद्ध चेतना अपनी ऊष्मा फेंक रही हो। मां बहुत विश्वास से मुस्कराई थी और पता नहीं क्या चमत्कार हुआ कि सात-आठ दिन में पूरी वर्णमाला मैं सीख गया। उसके बाद मेरे अध्ययन की यात्रा सहजभाव से चल पड़ी। फिर मेरा नाम लिखाया गया। नाम लिखाने मेरी पट्टीदारी के एक चाचा गये थे। जब मेरी जन्म-तिथि लिखाई गयी तो मैंने बहुत झगड़ा किया। जन्म-तिथि लिखाई गयी 31 जनवरी, 1925। मैं बार-बार जोर देकर चिल्लाया कि गलत है यह तिथि। मेरी जन्म-तिथि 15 अगस्त, 1924 है लेकिन किसी ने मेरे कहे पर ध्यान नहीं दिया। मुझे बहुत अजीब लगा कि मेरी असली जन्म-तिथि छोड़कर नकली जन्म-तिथि लिखी गयी थी। स्कूल में प्रवेश पाने के प्रथम दिन ही झूठ का एक धक्का जो लगा वह बाद में और व्यापक तथा गहरा होकर लगता ही रहा। जितना ऊंचा विद्यालय, उतना ही बड़ा झूठ; जितनी बड़ी डिग्री, उतना ही बड़ा झूठ, जितना ऊंचा आदमी, उतना ही बड़ा झूठ, लेकिन तब मैं तिलमिलाकर रह गया था। बाद में उसका सही अर्थ समझा, उसका लाभ समझा और जब अवकाश प्राप्त करने का समय आया है तब यह देखकर तकलीफ होती है कि मेरी असली और नकली जन्म-तिथि में केवल छः महीने की ही दूरी क्यों है जबकि मेरे अनेक सहकर्मी मित्र कई-कई साल का फसला लिए बैठे हैं।
मैं पढ़ने में अच्छा था। हमेशा क्लास में मानीटर रहा। लेकिन कई बार मैं भटका भी। जब-जब किसी गलत मास्टर के पाले पड़ गया और उसने प्यार और शान्ति से समझाने के स्थान पर आतंकवादी रुख अख्तियार किया मेरी बुद्धि निष्क्रिय हो गयी और पढ़ने से जी उदासीन हो गया। पंडित रामचंद्र त्रिपाठी को मैं कभी नहीं भूल सकता। हम लोगों के सौभाग्य की बात थी कि प्राइमरी और मिडिल स्कूल हमारे गांव के पास के गांव विशुनपुरा में था। दोनों गांव की दूरी चार-पांच फर्लांग की होगी। पंडित रामचंद्र त्रिपाठी हमारे गांव के पास के गांव गोपलापुर के निवासी थे। वे किसी और स्कूल में पढ़ाते थे। जब उनका तबादला बिशुनपुरा के स्कूल में हो रहा था तब स्कूल में आतंक छा गया कि यह मास्टर तो बहुत निर्दयी है, चैले से मारता है। तब मैं दर्जा एक में था। दुर्भाग्य से वे हम लोगों की क्लास के मास्टर बनकर आये। मन्नन द्विवेदी की कविता याद न कर पाने के संदर्भ में उन्होंने पूरी क्लास को बड़ी बेरहमी से पीटा। एक दूसरा प्रसंग याद आ रहा है। शायद दर्जा दो की बात थी। तब वे दर्जा दो को पढ़ाने लगे थे। उन्होंने कोई हिसाब समझाया। मेरी समझ में नहीं आया। मैं कह चुका हूं न कि हड़बड़ी या आतंक में समझाया हुआ काम मेरी समझ में नहीं आता। वे पूछते थे, ‘‘समझ गये ?’’ हम लोग कहते थे, ‘‘हां।’’ जब वे सवाल लगवाते थे तब हम सभी लोग गलत कर देते थे, इस पर वे पिटाई करते थे। मेरी भी काफी पिटाई हुई। पिटाई का सिलसिला जारी था कि छुट्टी की घंटी बज गयी। किसी तरह जान बची। लेकिन मेरा मन पढ़ाई से विरक्त हो गया। ठान लिया कि पढ़ने नहीं जाऊंगा। विरक्ति का यह दूसरा दौर था। एक दौर शायद जब ‘ब’ में पढ़ता था तब आया था। याद नहीं कि क्यों आया था लेकिन इतना याद है कि आया था और मैं मां के समझाने पर भी कई दिन तक स्कूल नहीं गया था। तब लड़कों की पूरी फौज मुझे पकड़ने के लिए भेजी गयी थी। लड़के मुझे टांगकर स्कूल ले जाने लगे तो मैंने किसी का नया कोट चींथ दिया, किसी की टोपी फाड़ दी, किसी को काट लिया, किसी को बस्ते से मार दिया और सब लड़के मुझे छोड़कर खाली हाथ लौट गये। होता यह था कि यदि कोई लड़का किसी कारण किसी दिन स्कूल नहीं जा सका तो दूसरे दिन जाने से डरता था। मास्टर से पीटे जाने के भय से वह दूसरे दिन स्कूल जाने से घबराता था और यदि उसका अभिभावक साथ लेकर गया तो चला जाता था नहीं तो भय के मारे कई-कई दिन तक वह गैरहाजिर हो जाता था और जितना ही अधिक गैरहाजिर होता था, उतना ही अधिक भय बढ़ता था और धीरे-धीरे स्कूल जाने से जी चुराने लगता था। कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ होगा। गैरहाजिर होने के बाद मैं हमेशा पिताजी को साथ लेकर स्कूल जाया करता था। लगता है उस बार वे नहीं जा सके होंगे और मेरे अनुपस्थिति रहने का सिलसिला लम्बा होकर स्कूल के प्रति विरक्ति में बदल गया।
इस बार पंडित रामचंद्र त्रिपाठी की पिटाई से दूसरे दिन स्कूल जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैं छुट्टी मार गया और जब एक दिन मार गया तो लगातार छुट्टी मारनी थी। तीसरे दिन गांव के रघुबर नाई के यहां बाल कटवाने गया तो वहीं सहपाठी कपिलदेव भी मिल गये और मालूम पड़ा कि वे भी छुट्टी मार रहे हैं। उनका भी मन रह-रहकर स्कूल से उचट जाता था, यद्यपि वे भी पढ़ने में तेज थे बल्कि हम दोनों शुरू से ही एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी थे। हम लोग बाल कटवा ही रहे थे कि संतू (संतप्रसाद) आ गये। उन्होंने आते ही कहा कि मैं स्कूल से आ रहा हूं, मास्टर साहब ने तुम दोनों को बुलाने के लिए भेजा है। तुम लोगों के घर गया तो मालूम हुआ कि तुम लोग यहां हो। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि संतू स्कूल गये होंगे और उन्हें मास्टर साहब ने या पंडित जी ने हमें बुलाने के लिए भेजा होगा। संतू हमारे गांव के एक बहुत हट्टे-कट्टे, लंबे-चौड़े, बदमाशियों में आगे रहने वाले और पढ़ाई-लिखाई में गोबर गणेश छात्र का नाम था। यह भला स्कूल क्यों गया होगा और पंडित जी इसे भला क्यों भेजेंगे ? फिर भी हम अपने घर जाकर स्कूल के लिए तैयार हुए। अपना-अपना बस्ता लिया और चल पड़े संतू के साथ स्कूल को। कुछ दूर जाने पर संतू ने एक रुपया जमीन पर से उठा लिया और कहा कि खोया हुआ एक रुपया मिला। मुझे पहले तो लगा कि हाय, मैं चूक गया मैं आगे होता तो यह रुपया मुझी को मिला होता लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि यह रुपया संतू अपने घर से चुराकर लाये होंगे और खुद ही चुपके से जमीन पर फेंककर उठा लिया होगा। यह सच निकला। कुछ दूर जाने के बाद एक बगीचा पड़ता था। वहां जाकर मैंने पीछे मुड़कर देखा संतू गायब थे-कहां गये संतू, कहां गये संतू ? कुछ देर बाद वे एक पेड़ की आड़ से निकले। अब मैं पूरी तरह समझ गया कि संतू स्कूल से भागे हुए हैं और हम लोगों को इन्होंने अपना साथी बनाया है। अब हालत बड़ी विचित्र थी। घर जा नहीं सकता था, स्कूल जा नहीं सकता था। दिन काटना था। स्कूल छूटने तक। बस, संतू हम लोगों को लेकर रानापर और बिशुनपुरा गांव की गलियों में घूमते रहे। पास रुपया था-कभी अमरूद खरीदते थे, कभी गुड़ खरीदते थे, कभी गट्टा खरीदते थे, कभी बताशा और कुछ हम लोगों को देकर बाकी काचुर-काचुर काचुर-कुचुर खाते थे और थूक देते थे। हम लोग जब स्कूल के किसी छात्र को या जान-पहचान के आदमी को देखते थे तो छिपकर गली-गली भागते थे। इस भाग दौड़ में मेरा बस्ता लम्बा हो गया था। उसे बार-बार समेटता था और वह बार बार वही रूप धारण कर लेता था। बरसात का दिन था उमस और धूप से हम परेशान हो गये थे। छुट्टी के समय की प्रतीक्षा कर रहे थे; वह समय आने का नाम ही नहीं ले रहा था। हम लोग स्कूल के सामने वाले बगीचे में गये। वहां से उचक-उचककर देख रहे थे कि छुट्टी हुई क्या ? और बहुत देर बाद छुट्टी का अनुभव हुआ जब देखा कि बच्चे स्कूल से निकल-निकलकर भाग रहे हैं। फिर मैं और कपिलदेव घर की ओर चल दिये औऱ संतू बस्ता लेने स्कूल की ओर। रास्ते में कुछ लड़कों ने पूछा, ‘‘अरे, तुम लोग कहां से आ रहे हो ?’’ ‘‘स्कूल से।’’ मैंने कहा।‘‘वहां दिखाई तो नहीं पड़े ?’’ और मैं चुपचाप आगे बढ़ गया। झूठ का बचाव मैं देर तक नहीं कर पाता, एक या दो आघात में मेरा झूठ ढह जाता है। यह इसलिए नहीं होता कि आघात करने वाले का निशाना अचूक होता है बल्कि झूठ मेरे भीतर के ‘मैं’ का हिस्सा नहीं बन पाता, यह ‘मैं’ ही उसे तेजी से बाहर ढकेल देता है। बाद में सुना कि संतू स्कूल में गये औऱ ज्योंही बस्ता लेने के लिए कमरे में लपके, हेडमास्टर बाबू साहब की नजर उन पर पड़ी और ‘पकड़ो-पकड़ो’ चिल्लाये। संतू कमरे की खिड़की से कूदकर पीछे की ओर भागे। स्कूल के पीछे दो बड़ी-बड़ी गड़हियां थीं। एक पलता-सा नाला उन्हें मिलता था। उस नाले में जलकुंभी पाट दी गयी थी ताकि आने-जाने के लिए रास्ता बन जाए। संतू उस जलकुंभी में कूदे और फंस गये। किसी तरह कूदते-फांदते निकले और भागे।
उसके दूसरे दिन स्कूल जाने का कोई सवाल ही नहीं था। कई दिन के बाद स्कूल जाने पर क्या हालत होगी, यह मैं जानता था। पंडित रामचंद्र की मार की कल्पना से रोआं थर्रा उठता था। पिताजी मेरे साथ जाने को तैयार नहीं हुए और मैं अकेले स्कूल जाने को राजी नहीं हुआ। बाबा गालियं देने लगे, मोहल्ले, के लोग समझाने लगे कि पढ़ाई के क्या-क्या फायदे होते हैं। उपदेश, लालच, डांट-फटकार किसी का मेरे ऊपर असर नहीं हुआ, पढ़ाई से मन एकदम भाग खड़ा हुआ।
पिताजी झल्लाये-‘‘चल बेवकूफ, नहीं पढ़ेगा तो घास काट, खेत निरा, खाद फेंक, खेत गोड़...। ये सब काम अपनी उम्र की औकात के मुताबिक पढ़ने के साथ ही करता था किन्तु पिताजी ने इन सब कामों को मेरे अखिल जीवन का लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत किया था और पढ़ाई से एकदम बिदका हुआ मेरा मन बड़े उत्साह और हलकेपन से इस लक्ष्य को स्वीकार कर बैठा और मैं हाथ में खुरपी लिए पिताजी के पीछे-पीछे खेत की ओर चल पड़ा। पंडित रामचंद्र तिवारी मेरे गांव के एक दरवाजे पर बैठे हुए थे। उन्हें देखते ही मुझे डर लगता लेकिन मन में एक गाली देकर कहा, ‘‘अब तुम मेरा क्या कर लोगे, अब तो मैं खेत की ओर चला।’’ पिताजी डांटते-फटकारते आगे-आगे चल रहे थे। पंडित जी ने पिताजी को संबोधित किया-‘‘क्या है मिसिर जी ! किस बात पर नाराज हो रहे हैं ?’’
‘‘अरे, यही अभागा पढ़ेगा नहीं, घास छीलेगा। हम लोग कोशिश करके हार गये। स्कूल नहीं जा रहा है। जब हम लोगों की तरह घास-पास की जिन्दगी बितायेगा, तब अकल ठिकाने आयेगी।’’
‘‘अरे सुनिये-सुनिये मिसिर जी, किसने कहा कि यह घास छीलेगा ? अरे, यह तो बहुत होनहार लड़का है। यह तो बहुत बड़ा आदमी बनेगा। यहां आ बचवा।’’
मैं डरता-डरता उनके पास गया। उन्होंने कहा, जाओ बेटे, यह खुरपी-सुरपी घर पर रख दो, तुम्हारे हाथ में खुरपी नहीं कलम अच्छी लगेगी।’’ और उन्होंने मेरे कान में मंत्र फूंकने की तरह कुछ कहा और पिताजी से कहा, ‘‘जाइए मिसिर, अब इसे मैंने मंत्र दे दिया है, अब यह कल से स्कूल आयेगा और पढ़ेगा।’’
पिताजी के साथ मैं घर लौट गया। मन हलका हो गया था। पंडित जी का जो भय मेरे मन पर पत्थर की तरह जमा हुआ था वह उन्हीं के स्नेह की आंच से पिघलकर बह गया। अब कल से स्कूल जाने में कोई झिझक नहीं अनुभव हो रही थी। मैं हिसाब की किताब लेकर बैठा। हल किये गये प्रश्नों के उदाहरण दिये गये थे, उन्हें देखा। हिसाब भी मेरा ठीक था ही बल्कि काफी अच्छा था। एकांत में वह हिसाब समझ में आ गया जो पंडित जी की पिटाई के कारण मेरे भीतर घबराया घूम रहा था।
याद है कि स्कूल बच्चों के शोर से बजबजाया करता था। ‘हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए’ के सामूहिक प्रार्थना गीत से शुरू होने वाला दिन गिनती और पहाड़ों के समवेत शोर से गूंजता रहता और उसी के बीच-बीच सप्प-सप्प या धम्म-धम्म पीटे जाने की आवाजें और लड़कों के चीखने-चिल्लाने की तेज आकस्मिक ध्वनियां उठती रहतीं। रोने-चीखने की एक खंडित लय स्कूल में तनी रहती। कोई-कोई मास्टर जी तो लात, जूता, लाठी सबका प्रयोग करते थे। कमजोर बच्चों के लिए स्कूल जाना एक खौफ था। वे सुबह निकलते तो देवी-देवता मनाते चलते थे। रानापार गांव में मदनेश जी के घर के आगे एक बरम बाबा की पीढ़ी थी। वहां पहुंचकर हमारे गांव के कई बच्चे हाथ जोड़कर खड़े हो जाते-‘‘हे बरम बाबा, आज मैं मार न खाऊं दुहाई बरम बाबा की।’’ लेकिन मार तो खानी ही थी। कई दुष्ट लड़के शाम को घर लौटते समय बरम बाबा का पीढ़ी की पटरी से पिटाई शुरू कर देते-‘‘लो बरम बाबा सरऊ, मैंने कहा था कि पिटाई न हो आज सबसे अधिक पिटाई हुई। लो, तुम भी पिटाई का मजा चख लो।’’
एक दिन एक लड़का स्कूल में इतनी बुरी तरह पिटा कि शाम को बरम बाबा की पीढ़ी पर पेशाब करने लगा। जिस दिन पिटाई न हो उस दिन को ये लड़के जीवन का कोई शुभ दिन मानते थे। मैं अपने गांव या दूसरे गांव के कितने ही छात्रों को जानता हूं, पिटाई के कारण विद्या से जिनका वास्ता टूट गया और वे या तो अपने पुश्तैनी काम में लग गये या घर छोड़कर भाग गये या जरायम पेशे में पड़ गये। मार के साथ-साथ मास्टरों के ताने भी कम मारक नहीं थे। किसी को पीटते समय मास्टर कहता था, ‘‘सरऊ, बाप तो हल जोतता है, ये पढ़ने चले हैं।’’ ‘‘ससुर तेली-तमोली पढ़ने चले हैं, पता नहीं कोल्हू कौन चलायेगा !’’ ‘‘अरे जाओ-जाओ, तुम भी बाप की तरह भीख मांगो, पढ़ाई लिखाई तुम्हारे वश की नहीं....’’ आदि-आदि....।
कभी-कभी सोचता हूं कि क्या विद्यालयी तौर-तरीके और पुलिस के तौर-तरीके में कोई बहुत अंतर था ? एक घटना याद आ रही है। संतू का चाकू खो गया। खो गया या उसने खो देने का नाटक किया। तब गंगा पंडित हमारे कक्षा-शिक्षक थे। संतू ने उनसे सवाल दागा। पंडितजी ने कहा, जिसने लिया हो दे दे। किसी ने नहीं दिया। बस, क्या था, उन्होंने कक्षा की सामूहिक पिटाई शुरू कर दी। काफी देर तक बच्चे तक बारी बारी से पिटते रहे और चाकू नहीं मिला। उस बचपन में भी मेरा मन इस अन्याय के विरुद्ध तिलमिला कर रह गया था कि चोरी का पता लगाने का यह कौन-सा तरीका है ? क्या यह पुलिस द्वारा की जाने वाली गांव के गांव की सामूहिक पिटाई से भिन्न है ? घर लौटते समय मैंने रास्ते में लड़कों को इकट्ठा किया और कहा कि हमें इस प्रकार के अत्याचार का विरोध करना चाहिए। मैं अपने पिताजी से कहूँगा, वे लाठी लेकर आयेंगे। तुम लोग भी अपने-अपने घर कहो, वे लोग भी लाठी लेकर आवें और मास्टर को इस अत्याचार के लिए दंडित करें। या हम लोग शाम को अरहर के खेत में छिप जायें और जब मास्टर घर लौटें तो घेरकर उनकी पिटाई कर दी जाय। सब लोग सहमत हो गये लेकिन दूसरे दिन एक लड़के ने जाकर उनसे कह दिया। और फिर जब मुझसे जवाब-तलब हुआ तो मेरी हालत देखने लायक थी।
एक दूसरा दृश्य याद आ रहा है। हमारे स्कूल के एक कमरे के द्वार पर मधुमक्खियों ने छत्ता लगा रखा था। पता नहीं, किस विद्यार्थी ने उसे छेड़ दिया या उससे छत्ता छिड़ गया, मधुमक्खियां तिलमिला उठीं। संयोग से उस समय मैं ही दरवाजे से निकल रहा था। भ्रमवश मधुमक्खियों ने मुझी को आक्रमणकारी समझ लिया और मुझी पर टूट पड़ीं। किसी तरह छिपकर जान बचायी। मधुमक्खियों से तो बच गया, अब बारी थी पंडित जी की। उन्होंने पूछा-‘‘मधुमक्खियों को क्यों छेड़ा ?’’ मैंने कहा-‘‘मैंने नहीं छेड़ा, कोई और छेड़कर भाग गया था।’’ मेरे लाख सफाई देने पर भी पंडित जी के दिमाग की मैल नहीं गयी और मधुमक्खियों से पीड़ित मेरे शरीर को बेंत से पीड़ित कर दिया। मैं तिलमिलाकर रह गया। इच्छा हुई बदतमीज मास्टर के मुंह पर ईंट मार कर इसकी नाक तोड़ दूं औऱ भाग चलूं। शूर्पनखा की तरह कटी नाक लिए घूमें। लेकिन क्या मैं यह कर सकता था ? एक छोटे दरजे के विद्यार्थी की कितनी छोटी औकात होती है कि उसकी सही बात को भी कोई सही नहीं मानता और वह अपने को गलत कहने वाले के खिलाफ कुछ कर भी नहीं सकता, सिवा मार खाकर अहकने के। मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था। जब मुझे-बेवक्त मास्टरों की सनक का दंड भोगना पड़ता था तो फिर उनका क्या पूछना जो पढ़ने में मंदबुद्धि थे और छोटे पेशे वाले घरों से आते थे।
स्कूल की पढ़ाई, गृहकार्य खेलकूद की बात करते-करते साहित्य की बात चल पड़ी तो जरूर साहित्य को कहीं इनके बीच ही होना चाहिए। और जब साहित्य इनके बीच है तो यह बात भी समझ में आती है कि क्यों मेरे साहित्य में तमाम रूप-रंगों कथ्यों और शब्दिक भंगिमाओं की कल्पना की जरूरत कम पड़ी। मेरे लिए तो मुख्य रचनात्मक समस्या यह रही कि अपने आसपास के जगत् की अनुभूत सच्चाइयों, गहरी जान-पहचान में ऊभरे अनंत पात्रों और उनकी जीती-जागती भाषा को कैसे सहेजूं, उनका कैसे रचनात्मक इस्तेमाल करूं ? मेरे लिए साहित्य एक सचेत अवस्था में पूरी तैयारी के साथ किया गया सफर नहीं था, बल्कि बचपन की अबोध अवस्था में ही उपजा हुआ एक अज्ञात बेचैनी था जिसे आसपास का जगत् उत्तेजित करता लगता था। मुझे मां और बाप से भावुकता मिली थी। गाता, बजाता था, सैलानी मुद्रा में खेतों में घूमता था। मुझे बचपन से ही प्रकृति अच्छी लगती थी, उसके विविध रंगों का बोध मेरी चेतना पर अपनी छाप छोड़ता था। भीतर कुछ था कि मैं बारह-तेरह वर्ष की अवस्था में गीत लिखने के लिए बेचैन हो उठता था। जब भी कोई गीत सुनता, मन कहता, क्या तुम ऐसा गीत नहीं लिख सकते ?’ और मैंने कई बार कोशिश की। एकाध, पंक्ति उभरी, फिर नहीं उभरी। कुछ लोगों ने नुसखा सुझाया कि बगीचे में एकांत में बैठकर सोचो, अपने-आप कविता आ जायेगी। वह भी किया। नहीं आयी फिर प्रयास छोड़ दिया, लेकिन मन के भीतर तड़प की यात्रा चलती रही। लोक-गीतों की पंक्तियां मेरे भीतर बजती रहीं और बार-बार चुनौती भी देती रहीं कि काश, मैं भी ऐसा लिख पाता ! लोक-परिवेश के विविध रूप-रंग मेरे भीतर उतरते रहे और मैं उनके भीतर उतरता रहा।
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